अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

औरत बेला की तरह
 

औरत होती है बेला की तरह
वैसी ही सुंदर और
गमक से भरी भरी
जिंदगी की धूप
झुलसा देती है जब
तन और मन
जब दूर दूर तक
नज़र नहीं आती है
कोई हरियाली
तब औरत
खोल खोल देती है
अपने स्नेह की पोटली
और बिखेर देती है
अपनी सारी खुशबू
बिल्कुल वैसे ही
जैसे झुलसते दिन
और तपती रातों में
खिल उठते हैं
फूल बेला के

-उर्मिला शुक्ल
२२ जून २०१५

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter