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बेले की कलियाँ
 

अनगिनत बेला खिले थे
चाँदनी बिखरी पड़ी थी
थी मनोरम मधुर रात
चाँद के अश्को ने कही
बेला से गुपचुप मधुर बात

श्वेत बेला महक गया
सुध गयी बिसराई थी
शर्म से यों लाल होकर
छिप गया अमराई में

चंद्र अविरल रहा ताकता
प्रेम निशब्द रहा उड़ेलता
कल्पना को पंख देकर
बादलों संग अठखेलियाँ खेलता

शाख बेला की चहकती
अभिसार पा मन में बहकती
उस दिवस द्वार मेरे
फिर फूल बेला के सजा कर
जब भी साजन पास आये
यों लगा उस कालिमा में
सहस्त्र तारे दिपदिपाये

यों लगा पल पल झूम उठी थी धरा
श्वेत बगुलों ने किसी डाकिये का रूप धरा
नागचम्पा शीश झुकाये हँस रहा
दूर तक प्रेम सन्देश धरा पटल पर लिख रहा

बेला के शृंगार कर
सजनी में अद्भुत रूप भरा
आशीष देने आ रही
स्वप्न अँजुरी में लिए
धरणी की चारों दिशा।

- मंजुल भटनागर
२२ जून २०१५

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