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ऋतंभरे
 
कण्टक मंडित बबूल के नीचे खड़ा हुआ
तुमने जिसकी जड़ को आँसू से सींचा था
मैं देख रहा हूँ वाट तुम्हारी ऋतंभरे!

हमने इसकी छाया में बोए थे सपने
वे साझे सपने मोहक मादक थे अपने
मुस्करा उठीं कोमल हरिताभ पत्तियां तब
मखमली बदन में कण्टक तभी लगे चुभने
आदेश पत्र बूढ़े बबूल ने सुना दिया
जिसमें सूचित थी नियति हमारी ऋतंभरे!

काँटों से बिंधकर सपने लहूलुहान हुए
तप उठा सूर्य शापित सारे वरदान हुए
भवितव्य रख गया हाथों पर जलती पीड़ा
सूखे आँसू लेकर मन रेगिस्तान हुए

फिर किसी अवांछित इच्छा ने ला खड़ा किया
अब भी बबूल की छाया प्यारी ऋतंभरे!

- यायावर
१ मई २०२०

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