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वन बबूलों के |
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हर पहर मिथ-
अपशकुन के-दिशाशूलों के,
आँख में उगने लगे हैं
वन बबूलों के
फुनगियों की नोंक
छनती धूप की लड़ियाँ
गोंद के खुरचे तने
लटकी हुई घड़ियाँ
मुंह चिढ़ाते, पंख पाए
रंग फूलों के
आधुनिकता की बहस
के फ्रेम से गायब
गिन लिए जाये, न जायें
है नहीं मतलब
हम दशमलव मान जैसे
वर्गमूलों के
एक आखर वेदना
स्वीकार होने को
कौन सहता धूप
छायादार होने को
अब नहीं दिन रह गये
मूल्यों-उसूलों के
- शुभम श्रीवास्तव ओम
१ मई २०२० |
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