अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

जीवन जिया बबूल सा
 
भाग में जैसा पाया भोगा
जीवन जिया बबूल सा
थोड़ा थोड़ा काँटों के संग
थोड़ा थोड़ा फूल सा

कभी सुहाया मरुथल मन को
कभी थे छींटे जल कण के
कभी चले हम बीहड़ जंगल
कभी दीप तारागण के
फाँक लिया था हर मौसम को
ओढ़ लिया था धूल सा

चली आँधियाँ तन मन मेरा
रेशा- रेशा तार हुआ
कोई गिला न आह-उलाहना
जीवन का व्यवहार हुआ
बाँट दिया जो भी था मेरा
बचा रहा फिर मूल सा

सेठ हुआ ना संत हुआ मैं
तोल मोल ना किया कभी
सारा जगत मीत-सा माना
जड़ चेतन अनमोल सभी
कष्ट कंटकों के जीवन में
रहा सदा अनुकूल सा

- शशि पाधा
१ मई २०२०

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter