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हम हैं वृक्ष बबूल के
 
जब बागों ने किया बहिष्कृत
सीखा है मेड़ों पर रहना
भूख यज्ञ की समिधा बनकर
अक्सर ही चूल्हे में दहना

कांटे पहने ,मगर विहँसते
पीत सुनहरे फूल से
हम हैं वृक्ष बबूल के

माना कि हम दूर, पास से
घातक कंटकमय हैं दिखते
लेकिन अंतर करुणामय है
सरस गोंद अमृत हैं रिसते

पिसकर मेरे वंशज फल भी
औषधि बनते संधि शूल के
हम हैं वृक्ष बबूल के

कोमल पुष्प,मधुर फल कुल से
अलग हैं हम जनवादी जैसे
तीक्ष्ण तने तारों के सुर में
गुंजित हो आज़ादी जैसे

कंटकों के राग में
आलाप हैं तो मूल के
हम हैं वृक्ष बबूल के

- शरद कुमार सक्सेना जौहरी
१ मई २०२०

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