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काँटों वाला कीकर
 
दुनिया के सारे दरख़्त
जब सूख गये कुम्हलाकर
बोले विष्णु बबूल वृक्ष से
जा सहरा का दुख हर

भू-परात में मृगतृष्णा थी
था खराब नभ का शावर भी
दिन भर जली रेत की भट्ठी
रात बर्फ की आई चिट्ठी

हार गया नन्हें पत्तों से
आँधी का बुलडोजर

थोड़ा सा पानी मिल जाये
तो भी रखता अंतर गीला
तानों की जहरीली गैसें
कब कर पाईं मन जहरीला

लाख गुना अच्छा कनेर से
काँटों वाला कीकर

चारा, औषधि, छाया, लकड़ी
यह तो सारे तरु देते हैं
जो निर्जल, निर्जन में तपकर
निर्मल रहते, ऋषि होते हैं

तभी साँवले तन में इसके
है नारायण का घर

- सज्जन धर्मेन्द्र
१ मई २०२०

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