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          बबूल

 
भोर की बेला पिरोते
फूल हरसिंगार के सब
मन हमारा ही पिरोता
देह की देहरी बबूल

गुण बहुत हैं किन्तु फिर भी
एक अभिशापित डगर हैं
हैं लकीरें तो सुनहरी
पर लकीरों में न घर हैं
बस मरुस्थल के निवासी
राजनगरों तक गये कब
वनगमन जिस पर हुआ था
हम उसी पथ की हैं धूल

जन्म-जन्मांतर विसंगति
की तरह चुपचाप रहते
घाव में मरहम लगा कर
भी, स्वयं ही पीर सहते
सुलभ जिसके पल्लवों में
सिद्ध औषधियाँ लबालब
क्यों जगत में वे अभागे
वृक्ष कहलाते हैं शूल

पीतवसना ॠतु वसंती
की विविध है रूप रेखा
फूल-काँटों में सुभाषित
सृष्टि का है भाग्यलेखा
और विधना पर बताओ
बोलते कैसे भला तब
मौन तरु हैं क्या विधाता
के सृजन की कोई भूल

- रमेश गौतम
१ मई २०२०

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