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बबूल पर भी लिक्खो
 
वे कहते हैं थोड़ा बबूल पर भी लिक्खो
जैसे तुम लिखते रहे हमेशा औरों पर
जैसे लिक्खा कमलों पर और गुलाबों पर
जैसे लिखते आए तितली
पर भौंरों पर

क्या दुनिया में पाँखुरियों की ही सत्ता है
क्या काँटे तुमको लगे नहीं उल्लेखनीय
छाया तो दे देते हैं काँटे वाले तरु
यदि बिरख नहीं तो छाया तो है वंदनीय

वे कहते हैं कुछ तो काँटों पर भी लिक्खो
जैसे लिखते हो तुम अमिया
के बौरों पर

काँटों वालों को भी तो छूता है वसंत
उनके मन में भी होता है रागानुराग
सो कभी बबूलों पर भी आते पीत पुष्प
उनके मन में भी कामदेव की लगी आग

वे कहते हैं थोड़ा पतझर पर भी लिक्खो
जैसे लिखते हो राग-रंग
के ठौरों पर

काँटों वालों के बिना कहाँ यह सृष्टि पूर्ण
फूलों के सर्जन को मिल जाएँ आलोचक
पैरों में चुभने के कारण बदनाम हुए
पर ये बबूल ही दाँतों के मल के मोचक

वे कहते हैं कुछ कड़ुवेपन पर भी लिक्खो
जैसे लिखते मीठे भोजन
के कौरों पर

- पंकज परिमल
१ मई २०२०

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