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          नैहर सा बबूल

 
कँटीली झाड़ियों में
मुस्काता सा खड़ा है बबूल
खेत के पीछे
न किसी ने सराहा न दुलारा
फिर भी पोषित है
दरोगा है खलिहानो का
छाल पर प्रहार सहता
औषधि देता
पितृ तुल्य साधक
वल्लरियाँ सी बेटियों का बबूल

नदी पार गाँव के मुहाने पर
हिलती डालियों पर
अधनंगी टहनियाँ
कुछ सुखी कुछ हरी पत्तियाँ
हलकी सी छाँव ही सही
मृग मरीचिका सी
दूर तक फैला भ्रम जाल
मुझे बुलाता गाँव
छिटक रही कहीं कहीं बबूल की छाँव

विदा होती दुल्हन के
शब्दों के बिरह में
शामिल नहीं था बबूल
ना ही गीतों की धुन बन
थिरकता बबूल
पर हवा संग सनसनाता रहा
नैहर बिरह गीत बन
कब कब गाता रहा बबूल

अनजाने भाई सा
जिसने कितनी बहनें विदा की
सहता रहा बिछोह
अपनी ज़मीन से जुड़ा
अपने मौसम से जुदा
जी नहीं सकता बबूल
सम्पूर्ण हो कर ही जीवित है
अपनी भूमि छोड़
खंड खंड पनपता नही बबूल

- मंजुल भटनागर
१ मई २०२०

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