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         हम जंगली बबूल हो गए

 
काँटे -काँटे देह हो गई
रेशा-रेशा फूल हो गए
राजपथों ने ठुकराया तो
हम जंगली बबूल हो गए

किससे कहते पीड़ा मन की
क्यों मैंने वनवास चुना है
इच्छाओं को छोड़ तपोवन
ये कठोर उपवास चुना है
धारा के संग बह न सके तो
नदिया के दो कूल हो गए

अनचाहे उग आते भू पर
नहीं किसी ने रोपा मुझको
क्रूर समय ने सदा मरूथलों
के हाथों ही सौपा मुझको
ऐसे गये तराशे हर पल
पोर -पोर हम शूल हो गए

रहे सदा ही सावधान हम
मौसम की शातिर चालों से
बच पाए इसलिये अभी तक
छद्म हवाओं के जालों से
इस जग ने इतना सिखलाया
अनुभव के स्कूल हो गए

बढ़ जाती जब तपन हृदय की
खिलते फूल मखमली पीले
भरते एक हरापन मन में
रंग धूप के ये चटकीले
सुधियों ने जिसको दुलराया
ऐसी मीठी भूल हो गए

मिटा सभी संताप हृदय के
रहे पथिक को छाँव लुटाते
साँझ लौटते विहगों के संग
गीत रहे जीवन के गाते
ढाल लिया खुद को कुछ ऐसा
हर युग के अनुकूल हो गए

- मधु शुक्ला
१ मई २०२०

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