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हमीं हैं वंशज बबूलों के |
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अंशतः
स्वीकार मिल पाया नहीं, पर
हम घृणित दुत्कार पाकर भी तने हैं
हमीं हैं वंशज बबूलों के!
विश्व, सुविधा, लाभ या उपयोगिता से
आकलन करता रहा प्रतिमान गढ़कर
सर्वहारा की तरह सब दाँव पर रख
नापते हैं हम शिखर
चट्टान चढ़कर
टूट जाते हैं मगर झुकते नहीं हम
हम सदा विपरीतताओं से बने हैं
हमीं हैं वंशज बबूलों के!
कौन गायेगा हमारी कीर्ति-गाथा
कंटकों को देह में रख हम चले हैं
गोंद बनकर सत्व जो रिसता हमारा
सामने उसके सभी
रस खोखले हैं
देखकर बाज़ार का बहुरूपियापन
हम चले अपनी त्वचा भी सौंपने हैं
हमीं हैं वंशज बबूलों के!
मानकर अस्पृश्य-सा बचकर निकलता
चल रहा अभिजात जन बचता बचाता
आमजन हमको सहेजे है सदा से
रोटियों की आस में
सिर पर सजाता
हम उगे हैं आग-सी तपती धरा पर
हर चुनौती के रहे हम सामने हैं
हमीं हैं वंशज बबूलों के!
- जगदीश पंकज
१ मई २०२० |
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