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         बोलो जरा बबूल

 
कष्ट मिटें कैसे धरती के
बोलो ज़रा बबूल
राज़ सभी तुम अब भविष्य के
खोलो ज़रा बबूल

तुम तो खड़े सघन जंगल में
क्यों तुमको आभास नहीं है
कोरोना का जाल है फैला
ये भी तो एहसास नहीं है
राक्षस जैसी बीमारी पर
रो लो ज़रा बबूल

कितनी मृत्यु हुईं हैं अब तक
कितनी होनी बाकी हैं अब
अब तो रहम करो धरती पर
पीड़ा कितनी आँकीं हैं अब
आज तराजू में मानवता
तौलो ज़रा बबूल

मंज़िल मेरी दूर बहुत है
साथ रहूँ ये चाह बहुत है
मैं अब घर में बंद रहूँगी
दूर रही तो फिर से मिलूँगी
अगर चाहते मुझ से मिलना
शांत भाव से जंगल में तुम
सो लो ज़रा बबूल

रखो हौसला मन में अपने
पूरे होंगे सारे सपने
हाथों को सैनीटाइज़ करना
जूते घर के बाहर रखना
सारे पत्ते सारी टहनी
धो लो ज़रा बबूल

बेटा बेटी दूर बसे है
कोरोना ने द्वार कसे हैं
नियम का पालन करना होगा
ना जाने कब मिलना होगा
नेह के मनके मन के भीतर
पो लो ज़रा बबूल

- आभा सक्सेना दूनवी
१ मई २०२०

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