अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

इसको दो सम्मान
 
काँटों भरा बबूल है, पर औषधि की खान।
गुण इसके पहचान कर, इसको दो सम्मान।।

नदियों की धारा मुड़ी, सूखे पड़े तड़ाग।
ताने शीश बबूल हैं, कटे आम के बाग।।

खिल जाते हैं फूल से, बनते कभी बबूल।
बस शब्दों के खेल हैं, लेप बने या शूल।।

बोये तो थे फूल पर, उग आये हैं बबूल ।
समझ न आये हो गई, चूक कहाँ पर भूल ।।

समय -समय पर बदलता, लोगों का व्यवहार ।
सम्बन्धों में स्वार्थ जब, लेता है आकार ।।

साँसे चलती हैं मगर, खो जाते हैं प्राण।
चुभ जाते हैं हृदय में, जब शब्दों के बाण।।

हरियाया, फूल-फला, फिर बबूल का पेड़ ।
बचा न पाई बाग को, टूटी कच्ची मेड़।।

काँटे भी सम्मान्य यदि , दें दुर्बल को आड़।
बाग सहेजे नेह से, बन बबूल ही बाड़ ।।

खिलें और फैले सुरभि, रहें सुरक्षित फूल ।
रखवाली हित मेड़ पर, डट कर खड़ा बबूल ।।

- मधु प्रधान
१ मई २०२०

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter