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इसको दो सम्मान |
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काँटों भरा बबूल है, पर औषधि की
खान।
गुण इसके पहचान कर, इसको दो सम्मान।।
नदियों की धारा मुड़ी, सूखे पड़े तड़ाग।
ताने शीश बबूल हैं, कटे आम के बाग।।
खिल जाते हैं फूल से, बनते कभी बबूल।
बस शब्दों के खेल हैं, लेप बने या शूल।।
बोये तो थे फूल पर, उग आये हैं बबूल ।
समझ न आये हो गई, चूक कहाँ पर भूल ।।
समय -समय पर बदलता, लोगों का व्यवहार ।
सम्बन्धों में स्वार्थ जब, लेता है आकार ।।
साँसे चलती हैं मगर, खो जाते हैं प्राण।
चुभ जाते हैं हृदय में, जब शब्दों के बाण।।
हरियाया, फूल-फला, फिर बबूल का पेड़ ।
बचा न पाई बाग को, टूटी कच्ची मेड़।।
काँटे भी सम्मान्य यदि , दें दुर्बल को आड़।
बाग सहेजे नेह से, बन बबूल ही बाड़ ।।
खिलें और फैले सुरभि, रहें सुरक्षित फूल ।
रखवाली हित मेड़ पर, डट कर खड़ा बबूल ।।
- मधु प्रधान
१ मई २०२० |
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