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कीकर पिता समान
 
धरती माँ की भेंट हैं, नीर वृक्ष धनधान्य।
जीव जंतु जीवित रहें, ईश्वर सम वे मान्य।।

करते हैं उपकार ही, सभी वृक्ष अनमोल।
शिवि दधीचि सम त्याग दें, तन अपना बिन मोल।।

तन पर लेकर शूल भी, उगते वृक्ष बबूल।
व्यर्थ नहीं कुछ भी यहाँ, करना कभी न भूल।।

वैद्यराज सम ये खड़े, औषधि के भंडार।
शाख, पत्र, फल, छाल, जड़, करते हैं उपचार।।

उग जाते मरुभूमि में, रखें न कोई ध्यान।
फिर भी मानव जाति का, करते ये कल्याण।।

पीत पुष्प धारण करें, फलियाँ सुंदर रूप।
अंग अंग औषधि बने, होकर देव स्वरूप।।

विविध रोग में लाभ दें, बालक या नरनार।
रक्त शोध बल कांति दे, करें सदा उपकार।।

दातुन, काढ़ा भस्म से, दर्द निवारक काम।
वृक्ष बबूल करे सदा, सेवा सब निष्काम।।

अपने दुख को भूल जो, तन में चुभते शूल।
स्वार्थ छोड़ सेवा करें, देता सीख बबूल।।

बाह्य रूप रूखे भले, अंतस गुण की खान।
रोग हरण रक्षा करें, कीकर पिता समान।।

- ज्योतिर्मयी पंत
१ मई २०२०

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