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बचाता जा रहा हूँ मैं
 
कठिन हालात में खुद को बचाता जा रहा हूँ मैं।
मरूस्थल को हरा सुन्दर बनाता जा रहा हूँ मैं।

हमेशा मोह लेती है सघन छाया सभी का मन।
मगर कुछ शूल तीखे भी चुभाता जा रहा हूँ मैं।

तकाजा है समय का ये मुझे सम्मान से देखो।
सभी के हित धरा सूखी सजाता जा रहा हूँ मैं।

जरूरी है रहे महफूज़ धरती का हवा पानी।
इसी कारण कठिन रिश्ता निभाता जा रहा हूँ मैं।

दवा के काम आकर मैं दिया करता निरोगी तन।
अनेकों रोग पर अंकुश लगाता जा रहा हूँ मैं।

मुझे रखना बचाकर है जरूरत आज की जानों।
हवा की स्वच्छता अविरल बढ़ाता जा रहा हूँ मैं।

कभी कीकर बबूलों के सघन वन खूब होते थे।
मगर उपकार की कीमत चुकाता जा रहा हूँ मैं।

- सुरेन्द्रपाल वैद्य
१ मई २०२०

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