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बाँस झर गए
 
फर गये
बाँस झर गये बाँस
तन-मन फूले रुक गयी साँस

किसने पाया यह सुखद अंत
मरघट पर आया हो वसन्त?
दिन-रात साधना चिर-अनन्त
मौनीबाबा कलियुगी सन्त

नदिया के
तट छुपकर मिलते
पर रह-रहकर तुम रहे खाँस

जब-जब होती भागवत कथा
गाँठें दे जातीं सघन व्यथा
गोकर्णों से धरती भारी
तर गये अनेक धुंधकारी

पतली सी
कमची हरी-भरी
मरमरी गले की बनी फाँस

बँसवारी की सर-सर मर-मर
पगडंडी चलती डगर-मगर
दुपहर में उतरी साँझ अरे
पत्तों के पग में झाँझ अरे

बादल अषाढ़
का ज्यों बरसा
धरती से फूटी नयी गाँस

- उमाप्रसाद लोधी
१८ मई २०१५

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