अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

बाँस जैसे हो गए दिन
 
पड़ गई
हैं गाँठ अनगिन
बाँस जैसे हो गये दिन

आँख के आगे अचानक
उग गये है प्रश्न इतने
पंख कटकर गिर रहे हैं
और उड़ते स्याह पन्ने

फक्क
काग़ज़ के गले में
धँस रहा है विषबुझा पिन

चरमराती रीढ़ घुटनों तक
झुकाती हैं हवायें
भुन रहे नंगे बदन की
सूखती जातीं शिरायें

आज
मन्सूबे अलग हैं
रौशनी ज्यों स्याह नागिन

छेदना दिल और कहना
सात स्वर उसमें बसा है
छूटने को तीर कोई
फिर कमानी पर कसा है

दायरे
में शब्द केवल
और सब कुछ दायरे बिन

- शुभम् श्रीवास्तव 'ओम'
१८ मई २०१५

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter