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देह खाली पोंगरी
 
देह ख़ाली पोंगरी औ'
ज़िंदगी बाँसों भरा वन
साँस की लय-तान छेडूँ
बाँसुरी बन जाय तन-मन

साधना का सुर सजाकर
छंद गीतों में पिरो लूँ
प्राण की धूनी रमाकर
चित्त अनहद में डुबो लूँ

भक्तिमय संसार हो हर
साँझ फिर गूँजे भजन

पर्वतों-सी वेदनाएँ
व्योम तक फैली हुई हैं
सागरों-सी कामनाएँ
तीर पर मैली हुई हैं

देह की चादर समेटूँ
मुक्त कर सारे प्रबंधन

मोहमय संसार सारा
लोभ रेतीला बवंडर
रूप का व्यापार सारा
ज्वार चढ़ता ज्यों समंदर

पाँव में घुँघरू लपेटूँ
ज़िंदगी हो जाय नर्तन

साँस थमती जा रही है
उम्र के पिछले पहर में
देह धँसती जा रही है
स्वार्थ के गहरे ज़हर में

धूप-बाती अब लगा लूँ
बाँसुरी बन जाय प्रवचन

- रजनी मोरवाल
१८ मई २०१५

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