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बँसवट है
 
बंसवट है वंशीधर,
छप्पर-छानी साखी
चहक उठा मन-पाखी
चौक पुरी देहरी से
निकल गयी फाँस!

बंसवट है
वंशीधर, बजा
रहा जीवन की बाँसुरी!

लरिकौरी बहू हुई
बाजी बाध-बधाई,
सूप माँगने आयी है
नाइन पुरवाई
पाख अँधेरा, लेकिन
लगता है, निकला दिन
भादों में ही जैसे
फूल उठा काँस!

बंसवट है
रूपंकर, सजा
रहा जीवन की पाँखुरी!

ब्याह का मंडप सजा
ढोल दरवाजे बजा
एक दिन को ही सही,
स्वार्थ को सबने तजा
श्वास-श्वास स्नेह-गंध
चिर अटूट स्नेह-बंध
अब क्योंकर चिंता हो?
एक हुई साँस!

बंसवट तो
है हृदवर, बाँट
रहा जीवन की माधुरी!

दादा हैं खटिया पर
सबके मन बैठा डर
कोई तो हाथ गहे
कोई परनाम कहे
देखो, फुलियाया है
एक और बाँस!

बंसवट
कापालिक-वर फोड़
रहा जीवन की गागरी

- राजेन्द्र वर्मा
१८ मई २०१५

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