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बढ़े बाँस से |
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पोर-पोर
दुख से भारी है
पातिन हरी हँसी
धरती पर थे पाँव
नज़र पर नभ में रही धँसी
काश, अधिक ऊँचे होते कुछ
नखत तोड़ लाते
कुछ साधन, कुछ सुख-सुविधाएँ
और जोड़ लाते
झुके भूल
ऊँचाई अपनी डूबे
सरवर में लेकिन अपने
हक़ की कोई मछली नहीं फँसी
इस युग में अपना मन कब तक
रहता हरा-भरा
यह नीरस तन-प्राण बढ़ा
दिन-दिन भूरा-भूरा
बंशी-बंशी
बजे हुए जितने-जितने
छिद्रिल, सूखे हैं पर सुर
की सरिता हम में रही बसी
काण्ड-काण्ड-भर बढ़ी कथा
हम सीधे हुए खड़े
युद्धकाण्ड तक अंतर्मन के
युद्ध अनेक लड़े
लिख डालेंगे
हर युग के इतिहास-
पुराण सभी बनें लेखिनी,
अगर बनेंगे सात-समुद्र 'मसी'
कहीं खोखलापन भी अपने
भीतर रहा भरा
कहीं कठिन प्रतिरोधक स्वर भी
इससे ही उभरा
जीवन-भर
संतुलन साध, उस पर
बढ़ते डग-डग चार बाँस
के पैरों में जो रस्सी रही फँसी
बढ़े बाँस-से, बढ़े ताड़-से,
बढ़े खजूर बड़े
इतने बढकर,झुका शीश
दरबार, हुजूर! खड़े
अगर चाहते,
हम लग्गी से मेघ
तोड़ लाते सुख की बदली
घर-आँगन में एक नहीं बरसी
चली हवा बैरिन तो अपनी
कमर हुई दुहरी
छिन-छिन अपने तन-मन झेली
सारी दोपहरी
बंधु! कहो
यह आकांक्षा क्या
अपनी अनुचित है? बरसे हम
पर आँख आपकी नीले अम्बर-सी
पर्व-पर्व-भर भक्ति-भागवत
रही करुण स्वर रो
काण्ड-काण्ड-भर बढ़ी कथा की
फल-श्रुति कुछ भी हो
रस-पेशिल
जीवन की लेकर साध
जिए युग-भर अस्थिशेष हम
ज्यों कि आम की गुठली रही चुसी
शाख-शाख-भर बढ़ते तो
चिड़ियों के भी होते
कुछ सुर की थाती सँघवाते
कुछ दुख निज खोते
दिवस-दिवस-
भर सोना बिखरा
अपने घर-आँगन हमने
छुई ताँबई भोरें रातें श्यामल-सी
- पंकज परिमल
१८ मई २०१५ |
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