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बाँस की व्यथा
 

हो गए सपने प्रवासी
और मुखड़े पर उदासी
तप्त मरुथल साँस प्यासी
भूल बैठे अधर हाँसी
इस जगत की चाह में मन
दर्द में डुबोया

इक तुम्हारे हित सदा से
सर्जनाएँ कर रहा हूँ
एक संन्यासी सरीखा
यातनाएँ सह रहा हूँ
रोम -रोम बिखर गया पर
पीर को पिरोया

साधता हूँ सुर तुम्हारा
बांसुरी में बज रहा हूँ
जल रहा हूँ बातियों में
चौखटों पर सज रहा हूँ
मिसरियों में घोल कर तन
नीर में भिगोया

फाँस चुभती हृदय घायल
गाँठ-गाँठ उघड़ रहा हूँ
जोड़-जोड़ टूटकर भी
कर्मपथ पर बढ़ रहा हूँ
सोचकर मन फट रहा है
क्या मिला, क्या खोया

- डॉ भावना तिवारी
१८ मई २०१५

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