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बाहर खड़ा अशोक
 

बाहर खड़ा अशोक,
शोक सब भीतर-भीतर

है अशोकपत्रों की
बंदनवार सजी घर के दरवज्जे
कोई हो भीतर ही गुमसुम, विहँसे
घर के छत-छज्जे

बाहर सब उन्मुक्त,
रोक सब भीतर-भीतर

कुछ अशोक के फूल
खिले तो किसी विजन में, पर कब देखे।
अपने हिस्से आए केवल घनी
शोक-बहियों के लेखे

बाहर सब स्वच्छन्द,
टोक सब भीतर-भीतर

अंतर्द्वंद्व अपार
भले ही मन के घर-आँगन में छाए
हुए सयाने, अश्रु दृगों की कोर
तलक भी कभी न आए

त्रिविध ताप के आज
लोक सब भीतर-भीतर

- पंकज परिमल  

१ अगस्त २०१८

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