अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

अशोक का वृक्ष
 

मैं अशोक होकर के भी तो
नहीं दूर कर पाता शोक

ग़म से हूँ बेहाल देखकर
मैं जनमन की ये बदहाली
भूख ताण्डव करती रहती
मूक मगर अब भी है माली
फिर भी जाने क्योंकर वोटर
नेताओं को देते ढोक
मैं अशोक होकर के भी तो
नहीं दूर कर पाता शोक

बचपन रोता ज़ार-ज़ार है
समय मगर हलकान नहीं है
कौन गली अब जाकर रोऊँ
कोई भी अनजान नहीं है

रोज़ लटकती लाश वृक्ष पर
कहाँ उन्हें पाया हूँ रोक
मैं अशोक होकर के भी तो
नहीं दूर कर पाता शोक

सीता कब दोषी थी बोलो
लेकिन रही पीर की चेली
छाँव कहाँ दे पाया उसको
संघर्षों से खुद ही खेली

रहा चीख़ता हर पल लेकिन
मुझे कहाँ सुन पाया लोक
मैं अशोक होकर के भी तो
नहीं दूर कर पाता शोक

हाँ जो छाँह कभी तुम आए
थकन स्वेद सारा पी लूँगा
सपनों की इक बना पोटली
आँख तुम्हारी मैं ढोलूंगा
मगर मुझे अब नहीं पुकारो
आज बनो तुम ही आलोक
मैं अशोक होकर के भी तो
नहीं दूर कर पाता शोक ||

- गीता पंडित  

१ अगस्त २०१८

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter