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ओ अशोक
 

ओ अशोक
पत्थरों के घरों में
कंक्रीट के जंगलों में
कहाँ ढूँढें तुम्हें

गहरा सन्नाटा
चहुं और पसरा है
खो गयी है चिरैया
उलझन-तनावो में
वाचाल उमंगों में
ओ अशोक
कहाँ ढूँढूँ तुम्हें

सावन भादों में
रिमझिम घटाओ में
बौछारों की धारों में
सुनाई नहीं देते गीत
अपनेपन के जंगलों में
खो गयी है प्रीत
परिवर्तन के पंख उगे हैं
भँवरों की अनुगूँज बंद है
चंचल तितली डरी डरी है
ना फूल हैं अँगना द्वारे
ओ अशोक
कहाँ ढूँढूँ तुम्हें ?

खेत खलिहान सूखे पड़े हैं
बेमतलब बिजूके खड़े हैं
स्याह दिन है रात अमावसी
जुगनू भी सोये पड़े है
ओ अशोक
ऐसे में कहाँ
ढूँढूँ तुम्हें

- डॉ. सरस्वती माथुर
१ अगस्त २०१८

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