तपती धरती करे पुकार,
गर्म लू के थपेड़ों से,
मानव मन भी रहा काँप
ऐसे में निर्विकार खड़े तुम
हे अमलतास।
मनमोहक ये पुष्प-गुच्छ
तुम्हारे,
दे रहे संदेश जग में,
जब तपता स्वर्ण अंगारों में,
और निखरता रंग में,
सोने सी चमक बिखेर रहे तुम
हे अमलतास।
गंध-हीन पुष्प पाकर भी,
रहते सदा मुसकाते,
एक समूह में देखो कैसे,
गजरे से सज जाते,
रहते सदा खिले-खिले तुम
हे अमलतास
हुए श्रम से बेहाल पथिक,
छाँव तुम्हारी पाएँ,
पंछी
भी तनिक सुस्ताने,
शरण में तेरी ही आयें,
स्वयं कष्ट सहकर राहत देते तुम
हे अमलतास।
बचपन से हम संग-संग खेले,
जवाँ हुए है साथ-साथ,
झर-झर झरते पीले पत्तों सा,
छोड़ न देना मेरा हाथ,
हर स्वर्णिम क्षण के साथी तुम
हे अमलतास।
सुनीता शानू
16 जून 2007 |