जैसे - जैसे
बढ़ता जाता है धूप का ताप
और मौसम को लग जाता है
कोई अनदेखा - अनचीन्हा पाप
वैसे - वैसे
तुम्हारी हर कलिका से उभरता है अनोखा उल्लास
देखा है - सुना है
तरावट के बिना
पत्रहीन होकर नग्न हो जाते हैं गाछ
तब तुम्हारे ये दिव्य वस्त्राभरण
बताओ तो किस करघे पर काता गया
यह मखमली रेशम - जादुई कपास.
भरी दोपहरी में
जब गहराता है आलस का अंधियारा
दोस्त ! तुम्हीं तो ले आते हो
थोड़ी रोशनी - थोड़ा उजास.
रुको मत समय
तुम बहो पानी की तरह
जैसे बह रही है नदी की धार !
सिद्धेश्वर सिंह
२५ अप्रैल २०११ |