हाँ,
धूप में
इस झुलसाने वाली
तीखी धूप में भी
कैसे
नाच रहा है
अमलतास
खिला-खिला पूर्ण समृद्ध
और
इस चीरती चुभती
काटती तलवार नुमा
धूप में
कैसे
मदमस्त गदराया विहँस रहा है
सुर्ख गुलमोहर
जैसे रखा हो
आसमानी हथेलियों पर
सुलगता हुआ
अंगारा लेकिन
एक अमलतास को
देखा है मैंने
गर्दिशों की धूप में
उतरते लड़खड़ाते
ऊबड़-खाबड़ पहाड़ियों से
अथवा निर्जन धूलसनी पगडंडियों पर
पीतल के गर्म होते बर्तनों में
आहिस्ता-आहिस्ता प्यास को ढोते
और
एक गुलमोहर को देखा है मैंने
अपनी किशोर देह पर तपिश लपेटे
इधर-उधर भटकते
बूँद-बूँद पिघलते
सर पर लकड़ियाँ ढोते
उदास गर्म दुपहरी में।
श्यामल मुंशी
16 जून 2007 |