तिमंज़िले को छूता
मेरे आँगन का
प्रसन्न वदन अमलतास
हर साल
पतझड़ की घोषणा से
हो जाता है उदास।
बिन पत्र, बिन फूल, बिन फल
आँगन का छिन जाता सारा उल्लास।
अमलतास!
कैसे कोई समझे तुझे
ऋषियों की माया हो
बच्चे से नटखट हो
गिरगिट से दलबदलू।
कभी कनक-पीत चंदोवा फैलाते हो
कभी धूप-बारिश से राहत दिलाते हो
कभी हड़ताल पर रूठे-रूठे जाते हो।
छाया दे घनी सघन
सबका मन मोहते हो
पंछी है, घोंसला है
बड़प्पन, संरक्षण है
फूल, फल, औषधि है
फिर भी तुम एक बार पतझड़ क्यों चुनते हो।
कैसे मन लगता है
कैसे मन तपता है
दो-चार बौछरों से
गदगद हुए जाते हो
उन्मत्त उन्मादों में सरगमलय गाते हो
हौले शरमाते हो
लहलहाते पल्लव दल
रौनक लौटाते हो
घन्यवाद, अमलतास।
डॉ० मधु संधु
16 जून 2007 |