जब बस सूरज
अलसाया हुआ निकला ही था
तब अमलतास पर डले झूले में
धीरे-धीरे झूलती "मैं"
अधखुली आँखों से सवाल कर रही थी--
ऐ अमलतास!
मुझे भी तो बता? कि ये जो तेरे पीले-पीले फूल
लगातार मुझ पर गिर रहे हैं
एक के बाद एक।
कल जब वापस मैं यहाँ सुबह आऊँगी
तो देखूँगी,
(जो पहले भी कई बार देख चुकी हूँ)
कि
जो डालियाँ फूलों के बिना खाली होकर उदास थी
वो वापस कैसे भर गई
बिना अपनी उदासी का एक भी निशान छोड़े
वो भी एकदम दहकते फूलों से लबालब!!
जैसे एक जुलाहा
धागा कम पड़ने पर या टूटने पर
वहीं से वापस कपड़ा बुनना चालू कर देता है
जहाँ से उसने छोड़ा था
पर
उसके कपड़े में
एक भी गाँठ-गिरह नज़र नहीं आती
परंतु ऐ अमलतास!
मैंने तो एक ही रिश्ता बुना था
उसमें तो सारी गाँठें नज़र आती है साफ़-साफ़
मेरे रिश्ते की डाली पर तो
उदासी के निशान साफ़ दिखते हैं
ठीक वैसे ही
जैसे किसी बच्चे के मनपसंद खिलौने के टूटने के बाद
उसके गालों पर सूखे आँसुओं की लंबी लकीरें।
मेरी यह विधवा की सूनी माँग-सी उदास डाली
कब तुझ जैसे पीले-पीले फूलों से लबालब
होगी?
एकदम सिंदूर-सी लाल दहकती हुई।
तुझे बताना ही होगा अमलतास
वरना तेरा यह झूला कल तुझे खाली मिलेगा
और फिर तू भी
तनहा होगा
एकदम तनहा!!
मधूलिका गुप्ता
16 जून 2007 |