सुआ पंखी से कोमल पत्ते
मृदुल बसंती फूल
जिसमें न तो काँटे
न कहीं धूल।
चिकना भूरा तना
और घना ऐसा
कि मंडप-सा बना।
यह अमलताश
देखने में काफ़ी बड़ा है
मानो आतप से
लड़ने को खड़ा है।
शिरीष के पादप-सा
हरीतिमा से भरपूर
नदी के किनारे
गाँव से कुछ दूर।
अपनी लंबी काली
फलियों से सज्जित
अपने आप में निमग्न है,
किसी वैद्य की भाँति
जन सेवा में संलग्न है।
ये शिरीष और पलाश से
दिखता है भिन्न,
हृदय है विकल
और मन इसका खिन्न।
सोचता है
कहीं कोई मनु का सपूत
फरसा लेकर न आता हो।
जगदीश प्रसाद सारस्वत विकल
16 जून 2007 |