विन्ध्य श्रेणि की उपत्यका में
लेकर फूलों का उपहार
अमलतास तरु विहँस रहा है
सहता रविकर निकर प्रहार
निर्जल अवनी के अन्तस से
खींच सुधा शुचि जीवन सार
थके बटोही के प्राणों में
करता नव जीवन संचार।
पवनांदोलित पीत मंजरी
अंशुमालि को देती अर्घ्य
शाखा भुज भर पक्षि-वृन्द को
संसृति में रचता अपवर्ग
उडुगन मंडित राकापति का
सजा मंजरी तोरण द्वार
निशा सुंदरी के कुंतल की
वेणी का करता शृंगार
अनगिन पिपीलिका वृंदों को
निज पद तल में दे विश्राम
नीड़ निषेचित खग शिशुओं को
आन्दोलित करता अविराम
ओ! बसंत के विजयकेतु
पी दाघ गरल धूर्जटि कमनीय
दो मानव को मन्त्र, बने वह
तुम सा उपकारक महनीय।
ब्रह्मदत्त गौतम
16 जून 2007 |