इठलाती, बल खाती
अमलतास की टहनी
कर्णफूल पहने
ठंडे मौसम से संग्राम छिड़ा
धूप के चढ़े तेवर
भोजपत्र पर दिन के
सूरज ने लिखे
दहकते आखर
शब्दों के पाँखी, जिन में
फिर आकर ठहरे
अब नहीं घरोंदे
पहले जैसे
दिखते गूँगे बहरे
धूल के वसन पहने
हवा लगी बहने
खेतों में थर-थर
कंपती फसलें पीताम्बर
मेड़ों पर उगे, मधुर
अलगोझा के स्वर
लहरों की सरगम पर
मंद-मंद थिरकती तलैया
सारस के युगल करें
मिलजुल कर
जलक्रीड़ा में, ताताथैया,
गहरे अवसादों के
दुर्ग लगे ढहने
प्रो.विद्यानंदन राजीव
१९ सितंबर
२०११ |