धरती तपती लोहे जैसी
गरम थपेड़े लू भी मारे।
अमलतास तुम किसके बल पर
खिल-खिल करते बाँह पसारे।
पीले फूलों के गजरे तुम
भरी दुपहरी में लटकाए।
चुप हैं राहें, सन्नाटा है
फिर भी तुम हो आस लगाए।
कठिन तपस्या करके तुमने
यह रंग धूप से पाया है।
इन गजरों को उसी धूप से
कहकर तुमने रंगवाया है।
इनके बदले में पत्ते भी
तुमने सबके सब दान किए।
किसके स्वागत में आतुर हो
तुम मिलने का अरमान लिए?
तुझे देखकर तो लगता है-
जो जितना तप जाता है।
इन सोने के झूमर जैसी
खरी चमक वही पाता है।
जीवन की कठिन दुपहरी में
तुझसे सब मुस्काना सीखें।
घूँट-घूँट पी रंग धूप का
सब कुंदन बन जाना सीखें।
रामेश्वर दयाल काम्बोज 'हिमांशु'
16 जून 2007 |