ओक, मेपल के चेरी के अपल के हैं किंतु
ऐसा नहीं कोई आभास दे
राह चौपाल की पर उगे थे हुए,
पेड़ ऊँचे घने वे अमलतास के
ग्रीष्म की दोपहर पत्तियों से छनी
तो हुई गुनगुनी इक सुखद भोर-सी
शाख पर खिलखिलाती हुई-सी हवा,
बज रही बाँसुरी जैसे चितचोर की
साक्ष्यदर्शी रहे कितने सौगंध के,
कितने अनुबंध के पत्र पढ़ते रहे
अनगिनत ये कहानी समेटे हुए,
थरथराती हुई दृष्टि के कोर की
है तपोभूमि कोई एक उपहार से,
पल समेटे हुए हर्ष उल्लास के
पेड़ ऊँचे घने वे अमलतास के
गंध शबनम सरीखी टपकती हुई,
एक आरोग्य का साथ वरदान है
भेंट पाए है अलकापुरी की धरा,
ये सुनिश्चित है न कोई अनुमान है
राह भटके मुसाफ़िर का बन नीड़ ये
फिर से विश्वास भरते हैं पाथेय का
मौसमी तेवरों से न बदला कभी
एक निश्चय की ये आज पहचान है
मंज़िलों की डगर पर बने चिह्न हैं,
सामने जो खड़ा एक मधुमास के
पेड़ ऊँचे घने ये अमलतास के
राकेश खंडेलवाल
16 जून 2007 |