गुलमोहर तो नहीं बन सका,
लेकिन मैं इक अमलतास हूँ।
जो गिरकर के फिर उठता है,
मैं वो स्वर्णिम विश्वास हूँ।
झुलसा जब-जब तन-मन तो फिर,
बिखर गया मेरा हर पात।
रौंदा मुझको इस जगती ने,
फिर कभी मेरी हुई न मात।
खिला दुबारा स्वर्ण-वृक्ष बन,
कैसा अद्भुत उल्लास हूँ।
खड़ा हुआ हूँ मैं साधक-सा,
कर्ण सरीखा दानी हूँ।
जिसमें मोड़ नया आ जाता,
वो इक सुखद कहानी हूँ।
वृक्ष नही, मैं इस धरती पर,
टूटे दिल की नई आस हूँ।
हर्ष-पात खिलते जीवन में,
खिलकर वे झर जाते हैं।
लेकिन सहकर तपिश दुबारा,
हम सुवास बिखराते हैं।
धरती का मैं स्वर्ण छत्र हूँ,
अलंकार में अनुप्रास हूँ।
गुलमोहर तो नहीं बन सका,
लेकिन मैं इक अमलतास हूँ।
गिरीश पंकज
16 जून 2007 |