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पुष्पा कुमार





 

साझा चूल्हा

एक-एक करके गुज़रते रहे हर साल
कोई फटेहाल तो, कोई मालामाल
कहीं किलकारियाँ तो, कहीं सिसकियाँ
कहीं फूलों के हार तो, कहीं मासूम चीत्कार

पलटते रहे तख़्ते, पड़ी कहीं फाँसी
अरे! बुत बने क्यों बैठे हो? क्या है ये बात ज़रासी?
क्यों बढ़ा ली है दुश्मनों की जमात
छीन कर सबके होठों से हँसी

रोक लो अब नफ़रत के सैलाब
चलो लाएँ एक ऐसा इन्क़लाब
न कोई बेहाल हो, न खस्ताहाल हो
न दुश्मनी की आग हो, सिर्फ़ दोस्ती बेमिसाल हो

ज़िन्दगी की शुरुआत कुछ शर्तों के साथ करें
कुछ तुम कहो, कुछ हुम कहें
कुछ तुम सहो, कुछ हम सहें
खुश तुम रहो, खुश हम रहें

साझा- भाव मन में प्रेम जगाएगा
और साझे चूल्हे की याद दिलाएगा
वो साझा चूल्हा, जहाँ साथ पकती थीं रोटियाँ
एक समान थी सबकी बहू, बेटियाँ

जहाँ दर्द एक थे, एक थी मुसकान
न था कोई दानव, सब थे इन्सान
चलो हम फिर से इन्सान बन जाएँ
जन्म लेकर मानव का हम न पछताएँ।

१२ मई २००८

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