प्रियोबती
निंथौजा
जन्म १० अप्रेल १९७९ इम्फाल
(मणिपुर) शहर में हुआ। संप्रति महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय
हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा में 'हिन्दी और मणिपुरी समकालीन
कविताओं का तुलनात्मक अध्ययन` विषय पर पी-एच. डी. कर रही है।
साहित्य के क्षेत्र में अनुवाद का कार्य किया है और कुछ कविताएँ
भी लिखी हैं। इसके अतिरिक्त कला और संस्कृति में रुचि रखती है।
ई मेल-
priyatombi@gmail.com
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प्रियोबती
निंथौजा की तीन कविताएँ
बूढ़ी माँ
आज शहर में हुआ हंगामा
फूटा बम बाज़ार में
किसी का हाथ किसी का पाँव
कहाँ किधर पता नहीं
हर दिशा इधर से उधर
उधर से इधर
गूँज उठी ध्वनि कलह की
जल उठी आग आंतक की।
पूरे शहर को किया इकट्ठा
हाथ ऊपर, कटार लगा
तलाशी शुरू, पूछताछ मारपीट
बेचारे नौजवान हथियार के सामने चुप
उन नौजवानों में था
एक बूढ़ी माँ का बेटा
हाथ में एक छोटी-सी थैली
उस में एक चप्पल की जोड़ी।
शाम हुआ रात हुई
वापस नहीं लौटा
बूढ़ी माँ का बेटा
बैठ कर चौखट पर
करती रही इंतज़ार
पास-पड़ोस से पूछा
मुहल्ले के दोस्तों से पूछा
कुछ न चला पता।
सुबह हुई ख़बर आई
आतंकवादी था बेटा तुम्हारा
मारा गया
बम विस्फोट में था शामिल
कल तक था गोद में जो
आज पाई उपाधि आतंकवादी की
यही हाल एक साधारण जीवन का
यही हाल एक गरीब का।
चीख-चीख कर चिल्लाई
सुनने वाला नहीं है कोई
आँसू से डबडबाई आँखे
लाचार विवश
गिर पड़ी बूढ़ी माँ
आतंक से हत्पीड़ित धरा पर
उठाने वाला नहीं है कोई
सँभालनेवाला नहीं है कोई।
२३ फरवरी २००९
माँ
क्रांतिकारी बेटे की
माँ क्रांतिकारी बेटे की
उपाधि माथे पर माँ आतंकवादी की
डरी-सी चुपकी-सी
देखता कोई दृष्टि से दया की
देखता कोई दृष्टि से घृणा की
तना-बानी रोज़-रोज़
चलती है सिर झुककर
सहती है पल्लू काढ़कर
माँ क्रांतिकारी बेटे की
उपाधि माथे पर माँ आतंकवादी की।
कोसती है दिन भर, रोती है रात
भर
कई सवाल मन में
नहीं कोई जवाब देनेवाला
क्यों किया तूने ऐसा
रह गई क्या कमी, परवरिश में मेरी?
क्या कम था मेरा प्यार?
मैं माँ गरीब, अनपढ़, गँवार
कुछ तो बताके जाते, कुछ तो समझाके जाते
माँ क्रांतिकारी बेटा की
उपाधि माथे पर माँ आतंकवादी की।
सबसे दूर अकेली
रहती है भागी-भागी-सी
दुख छुपाकर सीने में
करती है नाटक खुशी का
नहीं है चोर मगर, रहती चोरी-चोरी-सी
माँ क्रांतिकारी बेटा की
उपाधि माथे पर माँ आतंकवादी की
खोई-खोई, डरी-डरी
नहीं किया है गुनाह कोई मगर
रहती सदा गुनहगार-सी।
२३ फरवरी २००९
मैं इस शहर में
खो गई हूँ मैं इस शहर में
कैसे जाऊँ घर
भूल गई हूँ पता घर का
न याद है मुझे रास्ता
जो जाता है मेरे गाँव
कहा था माँ ने
रहता है रक्षस शहर में
निगलता है नवागंतुक
बनाता है अपना गुलाम
छोड़ता नहीं ज़िंदगी भर
मत जाना मेरे लाल
जिसने छोड़ा घर एक बार
नहीं लौट पाता दुबारा
खो गई हूँ मैं इस शहर में
नहीं लौट पाई घर अपने।
२३ फरवरी २००९
काश
काश मैं एक ज़हरीली नागिन होती
तो काट लेती उन पाखंडों को
जिन्होंने जन्माई हैं
धर्म के नाम पर ऊँच-नीच की भावना।
२३ फरवरी २००९ |