डॉ. विष्णु
सक्सेना
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मुक्तक
किसी पे एतबार मत करना,
स्वप्न को तार-तार मत करना
ये तो दुनिया ही एक छलावा है,
बंद आँखों से प्यार मत करना।
खिलती कलियों से प्यार कर लेते,
न खिलें तो गुहार कर लेते,
मान जाते तो ठीक था वरना,
तुम ज़रा इंतज़ार कर लेते।
अश्क आएँ अगर तो बहने दो,
थरथराएँ अधर तो कहने दो,
गर छुओगे तो टूट जाएगा,
फूल को शाख पर ही रहने दो।
अब किसी से भी आस मत रखना,
दर्द भी आस-पास मत रखना,
जी में आए तो मुझे वो कह लेना,
अपने मन को उदास मत रखना।
चाँदनी छत पे जब उतारोगे,
तन सजाओगे, मन सँवारोगे,
मैं मिलूँगा वहीं कहीं तनहा,
जिस किसी मोड़ पर पुकारोगे।
चाहे सूखा गुलाब दे देते,
गालियाँ बेहिसाब दे देते,
उम्र-भर देखते न सूरत पर,
मेरे ख़त का जवाब दे देते।
तुम ज़रा भी अगर बढ़े होते,
मेरी नज़रों में फिर चढ़े होते,
भूल कर भी न भूलते मुझको,
तुमने ख़त जो मेरे पढ़े होते।
ये जो नदिया के दो किनारे हैं,
दरअसल प्यार के ही मारे हैं,
फिर किसी मोड़ पर मिलें शायद,
झूठी उम्मीद के सहारे हैं।
फूल काँटों में ठन गई होती,
रात और दिन में तन गई होती,
तुम न आते जो मेरे आँगन में,
ज़िंदगी बोझ बन गई होती।
३ अगस्त २००९ |