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डॉ. क्षिप्रा शिल्पी

जन्म- १४ दिसम्बर १९७४ तो उत्तर प्रदेश के बहराइच नगर में।
शिक्षा- एम.ए, एल.एल.बी, पीएच.डी (हिन्दी साहित्य और इलक्ट्रोनिक मीडिया) रंगमंच, मीडिया लेखन, डेक्स टॉप पब्लिशिग में डिप्लोमा।

कार्यक्षेत्र-
अध्यापन, पत्रकारिता, दूरदर्शन संचालन, पटकथा लेखन और विज्ञापन में कापी राइटर और चित्रांकन की दुनिया से होते हुए संप्रति जर्मनी के कोलोन शहर में सपरिवार निवास। भारतीय पारंपरिक नृत्य एवं चित्रकला में अभिरुचि

प्रकाशित कृतियाँ-
देश-विदेश की लगभग सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। एवं कई साझा संकलनों में उपस्थिति।

सम्प्रति-
वर्तमान में जर्मनी के कोलोन शहर में हिन्दी क्लब द्वारा हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार में सक्रिय सहभागिता।

ईमेल- shiprashilpi74@gmail.com

 

 

  मुक्तक


बैठे बैठे सोच रही हूँ, शब्दों को मैं तोल रही हूँ
मन भावों को ढाल सुरों में, द्वार हृदय के खोल रही हूँ
ढूँढ रही हूँ मैं ऐसा सच, जो काँटों सा चुभता ना हो
आहत ना हो पाये कोई, मधुरस में सच घोल रही हूँ।


मौसमों की तरह बेवफा हो गये
पंख मिलते ही हम से जुदा हो गये
छू लिया है बुलन्दी को आकाश की
आदमी से वो देखो खुदा हो गये।


दुख में जब भी बहते आँसू, मोती से चुनती है माँ
मेरी खुशियों में शामिल हो, फूलों सी हँसती है माँ
अपने सारे सुख चुन चुनकर, सपने मेरे बुनती है
छू लूँ जो आकाश कभी मैं, तितली सी उड़ती है माँ।


बाँध गठरिया प्रेम की, ले आई परदेश
मिट्टी की सोंधी महक, सँग अपनों का वेश
चूड़ी-कँगना बोलते, जब आते त्यौहार
मन की यादों में बसा, मेरा प्यारा देश।


असह्य वेदना व्याकुल मन की, तुमको प्रिय बतलाऊँ कैसे
ज्वार उठा अंतस में जो अब, तुमको प्रिय दिखलाऊँ कैसे
तज शरीर मिल पाती तुमसे, तज देती मैं क्षणभर में ही
प्रिय! तुम मुझसे दूर बहुत हो, जीवित तन मैं आऊँ कैसे!


फूलों सा नाज़ुक दिल उसका, काँटों से देखो चीर दिया
गैरों से क्या शिकवा करती, अपनों ने ही जब तीर दिया
माँ, पत्नी, बेटी बनकर जो, हर रिश्ते में बस जाती है
आँचल उस का छलनी करके, क्यों आखों में भर नीर दिया


सहता हूँ मैं पीर ह्रदय की, घूँघट में शर्माता हूँ
बहता हूँ आँसू के सँग मैं, खुशियों में मुस्काता हूँ
हर दिल की बातें सुनता मैं, अपने दुख की कब जानूँ
"मैं दर्पण हूँ" सच कहने पर, अक्सर तोड़ा जाता हूँ।


ना रुकी हूँ ना रुकूँगी, मैं सतत चलती रहूँगी
धार हूँ तलवार की मैं, वार यों करती रहूँगी
रुख हवा का मोड़ दूँ, बदलाव की किरणें बिखेरूँ
बन समय की लेखनी, इतिहास मैं रचती रहूँगी।


हो नेह भरा जीवन सबका, प्रेम सुधा छलकाना है
बस दिल के गहरे सागर में, भावों सा बह जाना है
क्षणभंगुर है जीवन जग में, अंत सभी का होना है
मिटटी से उपजे हैं हम फिर, मिट्टी में मिल जाना है।

१५ जुलाई २०१६

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