सात मुक्तक
हँसता हूँ मगर इसमें कोई राज़
नहीं है
रोना या रुलाना मेरा अंदाज नहीं है
गीतों को समझना तो महज काम है दिल का
यह मेरा तरन्नुम मेरी आवाज नहीं है
मैं पहली मुलाकात के पल भूल गया हूँ
कब किससे हुई कैसे पहल भूल गया हूँ
अब तक तो मुझे याद था हर शेर जुबानी
देखा तुम्हें तो पूरी गजल भूल गया हूँ
दौलत से घर भरा है तुमको गरूर यह है
मैं गालियाँ उसे दूँ मुझे हक जरूर यह है
महलों में तुम पले हो मैं झोंपड़ी में जन्मा
कुछ है तो मानता हूँ मेरा कसूर यह है
आँखों को हो सके तो सपनों से तोलिएगा
दिल को भी सिर्फ अपने दिल से टटोलियेगा
हम सिरफिरे हैं फिर भी यह बात याद रखना
जो हमसे बोलियेगा तो ढंग से बोलियेगा
चारों तरफ अँधरा जाने ये कब भगेगा
वो कौन शख्स होगा सोने से जो जगेगा
मैं ये यकीन लेकर दुनिया में जी रहा हूँ
मेरे यहाँ भी आखिर सूरज कभी उगेगा
यह है सही कि मुझको मेरे अहम ने मारा
मेरी तबाहियों में मेरा कसूर सारा
मैं हूँ भँवर में लेकिन इतना यकीन तो है
कोई लहर किसी दिन बन जाएगी किनारा
तुमने कहा जो कुछ भी मुझको कबूल ही है
पाबंदियों से लड़ना मेरा उसूल ही है
मुझको सभा में सबने पहचान ही लिया है
पाँवों में है बिवाई माथे पे धूल ही है
२५ अक्तूबर २०१० |