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राज बहादुर 'विकल जलालाबादी'

 

  मुक्तक

रात के घर में नहीं स्वागत सबेरे का हुआ है।
विहग उड़ना रोक मत क्यों मन बसेरे का हुआ है।
सूर्यवंशी धूप के टुकड़े, अनाथों से दुखी हैं-
रोशनी के मंच पर कब्ज़ा अंधेरे का हुआ है।।

प्यार के विश्वास को ही बाँध तुम पाए नहीं।
हर सिसकती साँस को ही बाँध तुम पाए नहीं।
व्योम, धरती, सिंधु पर्वत वन नदी बाँधे सभी-
एक अनबुझ प्यास को ही बाँध तुम पाए नहीं।।

भाव दर्पण आँसुओं से ही धुला करता।
मधुर या कटु हो, सभी जल में घुला करता।
दस्तकें दीवार पर क्यों दे रहे हो यों-
अनुभवों का द्वार भीतर से खुला करता।।

मेघ-दल सर्वस्व छलका कर हुआ रीता नहीं है
जो बिताता प्यार में जीवन कभी बीता नहीं है।
प्रण पपीहे का सुलगती प्यास की पूँजी सँभाले-
वह किनारों से बँधे जल को कभी पीता नहीं है।।

प्राकृतिक सौंदर्य के वातावरण पूजे गए।
धन नहीं तप के अकिंचन आचरण पूजे गए।
सिंहासनों के अंधकारी शीश ठुकराए गए-
आलोक धर्मी साधनाओं के कारण चरण पूजे गए।।

ज्योति बन जाओ कहीं भी तम नहीं है।
गीत गाओ रोकता मौसम नहीं है।
मौनता का सिंधु दुर्लभ मोतियों वाला-
शब्द ही अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं है।।

१३ अक्तूबर २००८

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