अलका मिश्रा
कशिश
जन्म- २७
जुलाई १९७० को कानपुर में।
शिक्षा- एम.ए. एम.फिल. (मनोविज्ञान)
कार्यक्षेत्र-
विशेष शिक्षिका/ काउंसलर और सचिव (ख्वाहिश फाउंडेशन) विकलांगता
के क्षेत्र में पिछले बीस वर्षों से कार्यरत तथा वर्तमान में
अपनी संस्था ख्वाहिश फाउंडेशन के द्वारा विकलांगता पर जागरूकता
कार्यक्रमों का विभिन्न शिक्षण संस्थानों में संचालन। विभिन्न
विधाओं में काव्य सृजन तथा लेखन कार्य। कई काव्य मंचों पर
काव्य पाठ एवं लेख कई समाचार पत्रों में प्रकाशित।
ईमेल-
alkaarjit@yahoo.co.in |
|
मुक्तक
एक
चाँद यूँ झाँकता है बादल से।
जैसे आँखें सजी हों काजल से।
उसने सिंगार कर लिया ऐसा,
लोग होने लगे हैं पागल से।
दो
घटा सावन की जो छाई तो बरस
जायेगी।
कोई आँधी उसे फिर रोक नहीं पाएगी।
'कशिश' की कद्र नहीं तुमको ज़माने वालों,
बाद जाने के मेरी याद बहुत आएगी।
तीन
ज़िन्दगी दो चार लम्हों की
कहानी है।
फिर न राजा है कहीं कोई न रानी है।
बाँट कर खुशियाँ मना लो जश्न हर लम्हा ,
वक़्त ठहरेगा नहीं ये बहता पानी है।
चार
ज़िन्दगी को सफ़र ही कहते हैं।
इसलिए सब सफ़र में रहते हैं।
उनको मंजिल कभी नहीं मिलती ,
रास्ते जो बदलते रहते हैं।
पाँच
साँस लेने को फकत ज़िन्दगी जो
कहते हैं।
दिल के रिश्तों से भी महरूम वही रहते हैं।
गैर की आँख का आँसू जिसे रुलाता है,
खुदा-ए- पाक भी रहमत उसी पे करते हैं।
११ नवंबर २०१३ |