डॉ. शैलेष गुप्त
वीर
शिक्षा-
परास्नातक(प्राचीन इतिहास एवं पुरातत्व विज्ञान,
पी-एच.डी.(पुरातत्व विज्ञान), यूजीसी-नेट (पुरातत्व विज्ञान),
एम.जे.एम.सी.(पत्रकारिता एवं जनसंचार),
बी.एड., डिप्लोमा इन रसियन लैंग्वेज़, डिप्लोमा इन
उर्दू लैंग्वेज़, ओरियन्टेशन कोर्स इन म्यूजियोलॉजी एण्ड
कन्ज़र्वेशन।
कार्यक्षेत्र-
संपादन, समीक्षा एवं साक्षात्कार लेखन के साथ साथ, -साहित्य,
संस्कृति, पत्रकारिता, इतिहास तथा पुरातत्व विषयक विभिन्न
राष्ट्रीय एवं अन्र्तराष्ट्रीय गोष्ठियों, संगोष्ठियों,
शोध-संगोष्ठियों, सम्मेलनों तथा कार्यशालाओं में सहभागिता और
प्रस्तुतीकरण। उपसंपादक- गुफ्त़गू (त्रैमासिक), इलाहाबाद,
कार्यकारी संपादक- तख़्तोताज (मासिक), इलाहाबाद, अतिथि संपादक-
पुरवाई (वार्षिक), बलिया।
सम्प्रति-
अध्यक्ष-‘अन्वेषी’, साहित्य एवं संस्कृति की प्रगतिशील संस्था,
फतेहपुर।
पुरस्कार व सम्मान-
कला रत्न पुरस्कार (‘काव्यांजलि’ संस्था, कानपुर द्वारा,
रामकृष्ण कला-साहित्य सम्मान,
(इन्द्रधनुष साहित्यिक संस्था, बिजनौर द्वारा) श्री मोहनलाल
गुप्त स्मृति जनसेवा सम्मान।
ईमेल-
doctor_shailesh@rediffmail.com |
|
आठ छोटी कविताएँ
१-
अवसान के निकट
अवसान के निकट
सिमटा मानव
दुबक जाता है
मासूम पिल्ले की तरह
नहीं सूझता कुछ
सिवाय इसके
कि कर सकता था वह
और बेहतर!
२- हर मुलाक़ात के बाद
तुमसे/हर मुलाक़ात के बाद
मुझे/आभास होता रहा है
कि देह की भट्टी में
मैं तल रहा हूँ
ज़िन्दगी
अपने ही
तप्त रक्त से
लबालब
कड़ाही में!
३- समायोजन
उस दिन
लुप्त हो जायेगा मानव
बच सकेंगे तो
रक्त-पिपासु
यानी नरपिशाच
सत्य साबित होगा
डार्विन
और
उसका
‘प्रकृति एवं परिस्थिति से
समायोजन का सिद्धान्त।
४- जमीर
उनकी मानसिकता स्वतंत्र थी
जमीर पाकसाफ था
तथापि
ताउम्र बँधे रहे
गु़लामी की जंजीरों में
और हम? जन्मतः स्वतंत्र हैं
तथापि
जमीर बेचकर ढो रहे हैं
गु़लाम मानसिकता।
५-खेल
दबाव में
झूमता मन/झूलती आत्मा
देख रहे हैं दर्पण में अपना-अपना बिम्ब
आत्मा उल्लसित है
समझ चुकी है-
खेल अब ख़त्म हुआ।
मन भी उल्लसित है
उसे लगता है-
खेल अभी जारी है।
६-विलुप्त
उस समय
भूलोक में असीम संभावनायें थीं।
मनुज के समक्ष
खुली थीं सभी राहें।
असंख्य अतृप्त इच्छाओं के मध्य
मानव शेष रहा
मानवता विलुप्त हो गयी!
७- समझदारी
समझदारी/समय सापेक्ष होती है
और स्थान सापेक्ष भी
अब/समय और स्थान
तब्दील हो गये हैं/पैसे में!
८- अर्थी
काजल की कोठरी/भयानक दैत्य
काँपती रूह
अपनी अर्थी अपने ही सामने......
नहीं सूझता कुछ भी
कँपकँपा जाती है
देह से चिपटी
तिलमिलाती आत्मा!
२३ जून २०१४ |