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प्रो. विश्वंभर शुक्ल
की रचनाएँ

 

ज़िंदगी एक, रंग सात (सात क्षणिकाएँ)



ज़िंदगी
इतनी छोटी नही है ,
उम्र का नाम रोटी नही है !



ज़िंदगी
ऐसे ठहरी हुई है ,
जेठ की ज्यों दुपहरी हुई है !



ज़िंदगी
कब रुकी, कब चली है ,
एक मुड़ती हुई यह गली है !



ज़िंदगी
चांदनी हो गई है,
चार दिन ही खिली ,खो गई है !



ज़िंदगी
आज भी तप रही है,
बूँद शीतल मिले ,जप रही है !



ज़िंदगी
आग पर जब चली है ,
दो कदम आगे बढ़कर मिली है !



ज़िंदगी
आदमी से बड़ी है,
एक स्वर्णिम चिरंतन लड़ी है !



हो गई ज़िंदगी
आदमी
मुस्कुराती नही आजकल.

१६ जुलाई २०१२

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