मंजु मिश्रा
|
|
सर्दी के दिन - चार कविताएँ
एक
थामी सूर्य ने लगाम कोहरे की
तो उजला हुआ दिन
रुई गोले से भागते फिरते आवारा मेघ
और नीला गगन
कभी ठानता रार बादल सूरज से
तो कभी सूरज धता बता देता बादल को
बस बीत जाएगा धुंध और सर्दी का मौसम
एक प्याला गर्म चाय
और खट्टी मीठी यादों के साथ
दो
सर्द रातों में हवाएँ जब
ओढ़ती हैं बर्फ की चादर ठिठुरती हैं काँपती हैं,
कँपाती हैं पोर पोर में चुभती सी गलन
उफ़ !!!
हवाओं की तुर्शी कि …
बजते हैं दाँत
पत्तों के लिपटती हैं डालियाँ
बेसबब ठिठुरती ये रात है कि कटती ही नहीं
भोर का इंतज़ार लम्बा और लम्बा
और ये सूरज भी तो देखो न
कितनी आनाकानी करता है सर्द सुबहों में
तीन
लम्बी रातें, छोटे दिन सहमे सिकुड़े बच्चे दिन
सुबह सवेरे सूरज लाता मफलर लाल लपेटे दिन
भोर हुए ही सिगड़ी जलती चाय बिना नहीं कटते दिन
लुक्का-छिप्पी, आँख-मिचौनी धूप खेलती सारा दिन
जगते ही फिर सोते दिन आते ही खो जाते दिन
कभी नरम तो कभी गरम फिर हौले हौले चलते दिन
घुसे रजाई कम्बल में मूंगफली से छिलते दिन
लम्बी रातें, छोटे दिन सहमे सिकुड़े बच्चे दिन
चार
भोर उगलती धुआँ धुआँ सा
कोहरा भी कोहराम मचाता
कहने को तो आता सूरज
पर रहता सहमा सहमा सा
लुक्का-छिप्पी, आँख-मिचौनी
धूप खेलती सारा दिन
कभी नरम तो कभी गरम
भाग भाग कर चलता दिन १५ दिसंबर २०१६ |
|