स्पर्श
माँ बेटी के बालों में
कंघी करती हुई
एक स्पर्श लौटा रही है
जो मिला था उसे
कभी अपनी माँ से
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रमेश
अग्रवाल की
क्षणिकाएँ |
ऊँचाई पर
ऊँचाई पर चढ़े लोगों को
दुनिया
बहुत छोटी नज़र आती है
और नीचे वालों को
ऊपरवाला बहुत दूर
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उसके पीछे
गाड़ी चमक उठी थी
उसके हाथों की रगड़ से
जिसके पीछे उसे
अपना चेहरा नज़र आया
और उसके पीछे सवार भूख
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प्रतिबिंब
अपनी असंख्य डालियों का
बोझ उठाए
चुपचाप खड़ा है यह पेड़
और इसके भीतर मैं देखता हूँ
एक बोझ ढोने वाली औरत का
प्रतिबिंब
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निर्बल
इतने निर्बल नहीं
जो रहते चुप
चुप है ज़मीन पाँव से दबी
छुपाए ताकत ढेर
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डर
इन नई मशीनों को
नहीं चाहिए इतने सारे हाथ
चार अंगुलियाँ ही काफ़ी हैं
आग उगलने के लिए
परेशान हैं लाखों हाथ
आखिर वे क्या पकड़ेंगे अब
कल से
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गेहूँ के
दाने
ये दाने गेहूँ के
जो बंद हैं मेरी मुट्ठी में
थोड़ी सी चुभन देकर
हो जाते हैं शांत
जो यो होते मिट्टी के भीतर
दिखा देते मुझे ताकत अपनी।
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शिक्षा
शिक्षा कोई प्रकाश नहीं है
अपने आप में
सिर्फ़ तरीका है
हमें अंधकार से
प्रकाश में ले जाने का।
२५ अगस्त २००८
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