रूपा धीरू को
मैथिली साहित्य में कम लिखकर भी काफी प्रतिष्ठा प्राप्त है।
गृहणी की भूमिका बखूबी निभाती आयी रूपा
के साहित्य में आम महिलाओं की भावनाओं का सजीव चित्रण पाया
जाता है। लेखन के साथ–साथ वे संगीत से भी जुड़ी हुयी हैं। नेपाल
की राजधानी काठमाण्डू में रहते हुए इन्होंने मैथिली, नेपाली,
भोजपुरी तथा हिन्दी भाषाओं के सौ से अधिक गीतों को अपने स्वर
से सजाया है। गायन क्षेत्र में भी इन्हें प्रतिष्ठा के साथ–साथ
आम लोगों का गीत गाने वाली गायिका के रूप में जाना जाता है।
रेडियो कार्यक्रम प्रस्तुतकर्ता के रूप में इनकी ख्याति
सर्वाधिक है। ' हैलो मिथिला' नामक रेडियो कार्यक्रम के माध्यम
से रूपा ने मैथिली उद्घोषण को नयी पहचान और ऊँचाई दी है। |
रौदक बाट
जोहैत
हम?
हमर कोन बात!
हम तं
पझाएल जारनि . . .
हं,
कखनो सुनगैत
कखनो मिझाइत
एकटा अधझरकू
चेरे ने छी।
भनसियाकें तामस उठैत छनि
हमरा पटकि दैत छयि
टहटहौआ रौदमें
आ हम सुखाकऽ
हरनाठी भऽ जाइत छी
संझुका भानस बेरमे
हमर प्रशंसाक पुल बान्हल जाइत अछि –
जारनि जे धू–धू
जरैत अछि, वाह . . .
आ हम
रंग–विरही व्यन्ज्न बनएबामे
तल्लीन भऽ जाइत छी।
भानस भऽ जाइत छैक
हमरा पानि ढारि मिझा देल जाइत अछि
आ हम अपनहिमे
कखनो सुनगैत
कखनो मिझाइत
कल्हुका रौदक
बात जोहैत
धुआइंत रहैत छी।
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धूप की बाट
जोहते
मैं?
मेरा क्या
मैं तो
जलती हुई लकड़ी
हाँ
कभी सुलगती
कभी बुझती
कभी अधजली
लकड़ी ही तो हूंॐ
बाबर्ची को आता है गुस्सा
मुझे उठाकर फेंक देता है
चिलचिलाती धूप में
और मैं पूरी तरह से सूखकर
तैयार हो जाती हूँ
जलने के लिए
खाना पकाते समय शाम को
मेरी तारीफ होती है –
जलावन जो धू–धू कर जलता है, वाह . . .
और मैं
तरह–तरह के व्यन्जन बनाने में
मशगूल हो जाती हूं।
खाना बन जाता है
मुझे पानी डाल कर बुझा दिया जाता है
और मैं स्वयं में
कभी सुलगती
कभी बुझती
कल के धूप का
रास्ता जोहते हुए
धुआँती रहती हूँ।
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