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काव्य संगम   काव्य संगम के इस अंक में प्रस्तुत है मराठी के समकालीन कवि उत्तम कांबले की कुछ कविताएँ। मूल मराठी से हिंदी अनुवाद किशोर दिवसे का है।

३१ मई १९५६ को जन्मे उत्तम कांबले ने राजनीति विज्ञान में स्नातक उपाधि प्राप्त करने के बाद लेखन और पत्रकारिता को अपना कार्यक्षेत्र बनाया। उन्होंने १९७९ में मराठी समाचार पत्र समाज में कार्य करना प्रारंभ किया। जल्दी ही १९८२ में वे सकाल समूह से जुड़े और आज वही वरिष्ठ संपादक के रूप में कार्यरत हैं। वे जाने माने वक्ता, कवि और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। उन्होंने दो उपन्यास, चार कथा संग्रह, पाँच शोधपत्रों के संग्रह, दो कविता संग्रह सहित अनेक पुस्तकों की रचना की है। उन्हें मुंबई मराठी पत्रकार संघ पुरस्कार, डॉ. एन.बी. परुलकर संघ पुरस्कार, दर्पण पुरस्कार, अगरकर पुरस्कार, दीनबंधु पुरस्कार आदि अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है।


बोधि वृक्ष

मेरे बाप ने मेरे लिए
गाँव खेतों की मेड़ें तोड़कर
बनाये थे नए रास्ते
लेकिन।
आज उन रास्तों पर
एक भी मील का पत्थर
ढूँढने पर भी नहीं मिलता
झुलसती गर्मी के दिनों में
विश्रांति के नाम पर नहीं उगता है एक भी बोधि वृक्ष!


साड़ी
बहुत-बहुत इच्छा थी
तेरे लिए साड़ी लेने की
गरीबी से हुई तार-तार
तेरी देह ढक देने की
किसी ने बताया
राशन कार्ड पर
मिलती है इंदिरा साड़ी
कतार में खड़े रहकर
मेरा नंबर आने का
और साड़ी ख़त्म होने का
एक ही वक्त!
फिर किसी ने बताया
इंदिरा साड़ी की जगह
जनता साड़ी आ गई
फिर कतारें। … फिर सपने
फिर गई घटना की पुनरावृत्ति
तेरी नग्न देह को साक्षी मानकर
मैं तुझे बताने लगा तत्व ज्ञान
जिस तरह नंगे आये हो
उसी तरह नंगे जाना है
बस! तेरे कफ़न की चिंता
जीवन भर सताती रही
जीवन भर सताती रही

ऐ बूढ़े

शरीर में प्राण मत रखो
आशा कोई भी मत रखो
प्रतीक्षा किसी की भी मत करो
शांत! मूँद लो अपनी आँखों को
ऐ बूढ़े!
आज-कल ही हवाएँ बदलीं
वहाँ धुल रहा है राज घाट
गंगा के गंदे पानी से राजघाट पर
अधिकार जताने के लिए
आज हो रहा है लाठी चार्ज
कल शायद। …
इसलिए कहता हूँ
शांत! मूँद लो अपनी आँखों को
ऐ बूढ़े!
महात्मा उनका या हमारा
प्रश्न हो गया विवादित
कल शायद पहुँचेगा अदालत में
उत्खनन का बनेगा मुद्दा
ऐ बूढ़े!
आज राजघाट धुल रहा है
कल शायद
गंगा धोने की बारी आई तब!

 

रोटी

रोटी छिनाल होती है
घोड़े की लगाम होती है
टाटा की गुलाम होती है
रोटी
मारवाड़ियों का माप होती है
पेट में छिपा पाप होती है
युग-युग का शाप होती है
रोटी
इतिहास होती है और भूगोल भी
गले का फाँस और साँस भी
अबूझ आकाश और एहसास भी
रोटी
साक्ष्य होती है धर्मयुद्ध और कर्म युद्ध का
कागजों पर उतरने वाली कविताओं का
और कविताओं से ऊर्जित विस्फोटों का
बहता हुआ लावा होती है रोटी

ऐसा होता है क्या धर्म?

धर्मस्थली बनाने पर भड़का विवाद
वाद-विवाद, फिर विवाद और वाद
विवादों के इस जातीय, धार्मिक दंगल में
हताहतों की सूची कम्प्यूटर मेमोरी में
भरते समय बोला एक इंसान
ऐ कम्प्यूटर! तू मान या न मान
धर्मस्थली के इस दंगल में
पहला हुआ स्वर्गवासी
दूसरा हुआ पैगंबरवासी
तीसरा हुआ ख्रीस्तवासी
चौथा हुआ बुद्धवासी
पाचवा हुआ बैकुंठवासी
और छठवा हुआ नर्कवासी
मरने के बाद भी
अलग-अलग जगहों पर जाने वाले
इंसानों की जानकारी सुनकर
कम्प्यूटर बोला खीझकर
अरे ओ इंसान!
काश तूने बना दी होती
सभी मृतकों की एक ही फ़ाइल
अरे! जगह भी बचती और समय भी !
सयाने कम्प्यूटर की बात सुनकर
बोला इंसान त्योरियाँ चढ़ाकर
बदतमीज! सवाल जगह का नहीं
धर्म का है। … धर्म का है। .
मूर्ख इंसान के इस जूनून पर
कम्प्यूटर ने किया प्रतिप्रश्न
क्या धर्म ऐसा होता है इंसानों का?
ऐसा होता है क्या धर्म?

किशोर दिवसे वरिष्ठ लेखक अनुवादक एवं पत्रकार हैं। कहानी और कविता संग्रह सहित अनेक विषयों में मराठी हिंदी व अँग्रेजी भाषाओं में परस्पर अनूदित उनकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।
संपर्क- kishorediwase0@gmail.com

१३ जनवरी २०१४

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