ओट्टपलक्कल
नम्पियाटिक्कल वेलु कुरुप
ओ. एन. वी. कुरुप
जन्म- २७ मई
१९३१ को, केरल के कोल्लम जिले में।
शिक्षा- मलयालम में एम ए की उपाधि।
कार्यक्षेत्र-
अध्यापन एवं लेखन। १९८६ में सरकारी सेवा से निवृत्त।
प्रमुख काव्य संग्रह-
अग्निशलभंगल, अक्षर, उप्पू, करुत्त पक्षियुडे पाट्टू, भूमिक्क
ओरु चरम गीतम, गार्ग पक्षिकल, मृगया, अपराहनम, उज्जयिनी,
स्वयंवर और भैयरवंडे तुडि।
कविताओं से संबंधित दो निबंध संग्रह प्रकाशित।
पुरस्कार एवं सम्मान-
कविता के लिये केरल साहित्य अकादमी पुरस्कार, केंद्र साहित्य
अकादमी पुरस्कार, सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, वयलार पुरस्कार,
उललूर पुरस्कार, आशान
पुरस्कार, ओडकुषल पुरस्कार, भारतीय भाषा परिषद पुरस्कार और
जोषुवा पुरस्कार से सम्मानित। फ़िल्मी गीतकार के रुप में १२
बार केरल राज्य सरकार से पुरस्कृत। १९९८ में पद्मश्री से
सम्मानित, २००७ के
लिये प्रतिष्ठित भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित।
(यहाँ
प्रकाशित मलयालम कविताओं क हिंदी रूपांतरकार हैं
संतोष अलेक्स।
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तीन
कविताएँ
१- अपराधों
का बयान
आज रास्ते में मुझे दिखाई पड़ी दीनता
सुनाई पड़ा रुदन
मेरा पीछा करते वे
अब भी मेरे दिल में हैं
वह पीड़ा
शायद अदृश्य सलीब है
मेरी आत्मा की स्वर्णिम मूर्ति
उसे वहन करती है
इस ऊँचे नीचे जीवन में
काँटेदार रास्तों से गुजरने पर
चलते चलते सुनाई पड़ता है
मेरे दिल की धड़कन का निमंत्रण
दूसरों के दिल धड़कने पर
तेज होती है मेरे दिल की ताल
शायद यही मेरा बल
मेरी दुर्बलता है
मैं अच्छे दिनों का
स्वप्न देखता हूँ
अच्छे लोगों को भी
शायद यही मेरी बीमारी है
क्या इसकी कोई दवा है
मेरी नसें कस गई हैं
छूने पर बजते तार सी
घाव से रिसते खून सी
कोई गीत बहता है मुझमें से...
२- आज भी
आज भी आकाश घना हो रहा है
कहीं सलीब पर
आज भी हमें प्यार करने वाला
छटपटा रहा होगा
आज भी किसी रईस के भोज में
कोई गरीब के मेमने को छीनकर
मार रहा होगा
आज भी कहीं
अपनों के खून से कोई
आँगन को लीप रहा होगा
आज भी आकाश घना हो रहा है
कहीं एक बेचारी बहन का मांस
कुत्ते चबा रहे होंगे
आज भी पड़ोसी द्वारा खुद की जमीन में
तैयार किये गए अंगूर के बाग को
कोई तबाह कर रहा होगा
आज भी हजारों
नन्हें गालों पर खिलनेवाले
केसर के फूलों को कोई
हड़प रहा होगा
आज भी थोड़े मृत सपनों के लिये
किसी के सीने में
चिता जल रही होगी
आज भी खुशी से
उड़ रहे नन्हें कपोत को
किसी ने बाण से गिराया होगा
आज भी अधनंगे
बूढ़े पिता को
नमस्कार कर
कोई गोली चला रहा होगा
आज भी आकाश घा होने पर
मेरा मन अंधकार से भर जाता है
क्या आज सूरज अस्त होने के बाद
फिर उदित नहीं होगा?
३-
तुम
यहाँ पहुँचते वसंत की जीभ को
तुमने उखाड़ दिया
चिड़ियों की चोंच से
कोई आवाज नहीं निकलती
तुमने वसंत के सारे सौभाग्य को
हड़प लिया
देखो यहाँ खिले हैं
गंधहीन फूल
नदी की मछली के परिवार को
तूने नष्ट कर दिया
नदी भी तेरे तोड़े गए
दर्पण के टुकड़ों सा
बिखरी पड़ी हुई है।
तुम मनुष्य को थोड़ा मरने के लिये
जरूरी गोलियों को बेच
धनी बन
अब अंतिम दवा के इंतजार में हो
साँस लेने वाली हवा में
पीने वाले जल में
मृत्यु का चारा टाँगते हो तुम
बैठे हुए टहनी को
खुद काट डालते हो।
आँखें मलकर उठते शहर को
विषैली गैस का कफन उढ़ा
हमेशा के लिये सुलाते हो तुम
आगामी शताब्दी का
इंतजार करती चिड़िया का
गला घोंट दें ?
निषाद ! बंद करो यह सब !
२५ अप्रैल २०११ |